परिचय और पृष्ठभूमि
भारतीय माइक्रोब्लॉगिंग प्लेटफॉर्म कू, जिसे ट्विटर का भारतीय विकल्प कहते हैं, अपनी अंत की ओर बढ़ रहा है। यह ऐप 2021 में तेजी से चर्चा में आया जब भारतीय सरकार के साथ ट्विटर का विवाद छिड़ा था। इस विवाद के चलते कई केंद्रीय मंत्रियों और सरकारी विभागों ने कू पर अपने अकाउंट बनाए। कू का इंटरफेस ट्विटर से काफी मिलता-जुलता था, जिसमें हैशटैग के माध्यम से पोस्ट को कैटेगोराइज़ करना और अन्य यूज़र्स को टैग करने की सुविधा थी।
भारतीय भाषाओं में समर्थन और प्रमुख उपयोगकर्ता
कू ने विभिन्न भारतीय भाषाओं को समर्थन देकर अपने को भारतीयों के बीच लोकप्रिय बनाने की कोशिश की। प्रमुख भारतीय राजनेता जैसे पीयूष गोयल, रवि शंकर प्रसाद, लेखक अमीश त्रिपाठी, क्रिकेटर अनिल कुंबले और जवागल श्रीनाथ सबसे पहले कू पर शामिल हुए प्रमुख व्यक्तियों में शामिल थे। हालांकि, भारतीय बाजार में इस ऐप को वह सफलता नहीं मिली जिसकी उम्मीद थी।
वैश्विक विस्तार और वित्तीय समर्थन
कू ने अपने प्रसार का प्रयास ब्राजील में भी किया, जहां लॉन्च के केवल 48 घंटों में इस ऐप ने 10 लाख डाउनलोड प्राप्त किए। कंपनी को टाइगर ग्लोबल और एक्सेल जैसे निवेशकों से 60 मिलियन डॉलर का वित्तीय समर्थन भी मिला। यह समर्थन कंपनी ने आत्मनिर्भर ऐप इनोवेशन चैलेंज जीतने के बाद प्राप्त किया, जो कि 'मेक इन इंडिया' अभियान का हिस्सा था। बावजूद इसके, कू को भारतीय बाजार में वह समर्थन नहीं मिला जो इसे आगे बढ़ने के लिए जरूरी था।
प्रमुख परियोजनाएं और चुनौतियां
कू ने भारतीय सरकार के साथ कई परियोजनाओं पर काम किया, जिनमें उत्तर प्रदेश सरकार के सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम तथा निर्यात प्रोत्साहन विभाग के साथ 'एक जिला एक उत्पाद' पहल को बढ़ावा देने के लिए एक समझौता ज्ञापन भी शामिल था। इसके अलावा, कंपनी के सह-संस्थापक मयंक बिडवाटका ने कहा कि वे कई बड़े इंटरनेट कंपनियों, समूहों और मीडिया हाउसों के साथ साझेदारी के लिए बातचीत कर रहे थे, लेकिन ये वार्तालाप अपेक्षित परिणाम नहीं दे सके।
कू के भविष्य पर प्रश्नचिह्न
कू के सह-संस्थापक मयंक बिडवाटका ने बताया कि दैनिकहंट के साथ हुआ समझौता भी ध्वस्त हो गया। यह परिस्थितियाँ स्पष्ट करती हैं कि वित्तीय समर्थन और साझेदारी के प्रयासों के बावजूद, कू अपनी जगह बनाने में असफल रहा। अब सवाल उठता है कि क्या कू को भारतीय सोशल मीडिया के पटल पर अपनी पहचान बनाने के लिए अभी और संघर्ष की आवश्यकता है या इसका अंत निकट है।
निष्कर्ष
कू का बंद होना भारतीय तकनीकी जगत के लिए एक प्रमुख झटका माना जाएगा, खासकर तब जब यह 'मेक इन इंडिया' अभियान से जुड़ा हुआ था। इस घटना ने यह भी सिद्ध किया कि केवल एक अच्छे विचार और वित्तीय समर्थन से ही सफलता सुनिश्चित नहीं होती, बल्कि उपयोगकर्ता की आवश्यकताओं और बाजार की प्रतिस्पर्धा को जितना महत्वपूर्ण है।
Sridhar Ilango
कू की कहानी एक बड़ी नाटक की तरह है, जिसमें हर मोड़ पर भीड़ घबराई हुई थी। एक तरफ सरकार की लाइलाज समर्थन और दूसरी तरफ निवेशकों की बड़ी आशा, दोनों का टकराव कभी नहीं रुका। 2021 में जब ट्विटर का भारत से झगड़ा बवाल बन गया, तब कू को "देश का अपना ट्विटर" कहकर पहचाना गया, पर यही पहचान ही अंत में उसका शाप बन गई।
कोई नहीं चाहा कि विदेशी प्लेटफ़ॉर्म पर राइट्स की जाँच हो, इसलिए कई राजनेता और सेलेब्रिटी जलद-जलद कू पर आए, लेकिन दर्शकों का दिल जीतना इतना आसान नहीं था।
कू ने भाषाई विविधता को अपनाकर एक बड़ा कदम उठाया, पर इस कदम की कीमत भी बहुत अधिक थी; कई छोटे शहरों में इंटरनेट की गति कूद-कूद कर गिरती रही।
टाइगर ग्लोबल और एक्सेल जैसे बड़े निवेशकों की फंडिंग ने कंपनी को ऊँचा उड़ान भरने का भरोसा दिलाया, पर इस भरोसे को रख-रखाव की ठोस योजना नहीं मिली।
ब्राज़िल में 10 लाख डाउनलोड तो लगे, पर भारत में यूज़र एंगेजमेंट का अँधेरा रहा और इस असफलता ने कू को गहरा धक्का दिया।
एक जिला एक उत्पाद जैसी सरकारी पहलें कू ने सुने विचार तो समझौते में बदलीं, पर उन समझौते के कागज़ात में भी कागज़ की तरह फटाफट धुंधला जड़ता रह गया।
मयंक बिडवाटका ने कई बड़े इंटर्नेट समूहों के साथ मिलने की बात कर के आशा जताई, पर वो मीटिंग्स अक्सर खाली बैठकों में बदल गईं।
डेलीहंट के साथ भी समझौता टूटा, इसने दिखाया कि भले ही वित्तीय समर्थन मिले, लेकिन प्रोडक्ट-मार्केट फिट न हो तो कोई भी कंपनी टिक नहीं सकती।
अब सवाल यह है कि कू को आख़िर क्यों नहीं समझ आया कि भारतीय यूज़र को फीडबैक क्या चाहिए? शायद कू ने अपने आप को "अमेरिकन" मॉडल में ढाला, जबकि भारत की सोच अलग है।
बाजार में तुलना में ट्विटर, इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप जैसी एप्लिकेशन ने पहले से ही पैठ बना ली थी, जिससे कू को फिर से जगह बनाने में दिक्कत हुई।
मेरे ख़याल से यह कहानी एक चेतावनी है कि सिर्फ फंडिंग और राजनीति का साथ नहीं, बल्कि यूज़र की रोज़मर्रा ज़रूरतें भी समझनी चाहिए।
यदि कोई नया प्लेटफ़ॉर्म भारत में सफल होना चाहता है, तो उसे "स्थानीय भाषा", "सस्ती मोबाइल डेटा", और "सरल इंटरफ़ेस" को मुख्य धारा में लाना पड़ेगा।
कू की गिरावट से हमें सीख मिलती है कि "मेक इन इंडिया" सिर्फ शब्द नहीं, बल्कि उपयोगकर्ता-केंद्रित होना चाहिए।
आख़िर में, चाहे कू बंद हो या नहीं, यह ऐतिहासिक प्रयास भारतीय टेक इकोसिस्टम को एक नई दिशा देगा, जो भविष्य में अधिक स्थायी एप्लिकेशन बनाने में मदद करेगा।